Sunday, July 26, 2020

एक सामान्य वैवाहिक विज्ञापन



एक सामान्य वैवाहिक विज्ञापन
“व्यंग्य”


दृश्य एक -

"हम्म!" वह बोली, "अब क्या बताऊँ, क्या चाहिए? बचपन से ही उसके स्वप्न देख रही हूँ।"
"जी" सामने करबद्ध खड़े मालवीय जी ने तुरंत कहा। शब्दों की गहराई में जाने की ना तो उनकी कोई रुचि थी, ना ही आवश्यकता। उनका काम था, जो बिटिया कहे सो नोट करना। अब उन्हे अगले वाक्य की प्रतीक्षा थी।
मालवीय जी कहने को तो बिटिया के धनाड्य पिता के सेक्रेटरी थे, परंतु वास्तविकता में उनकी उपयोगिता ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों वाले रामू काका से अधिक न थी। बचपन से ही बिटिया के लिए बिस्कुट लाना हो या गुड़िया, अथवा स्कूल, कॉलेज की फीस हो, सभी का निष्पादन मालवीय जी ने सहर्ष किया। अब तो बिटिया सयानी हो गई है। एमबीए-शैमबीए भी हो गया है। पर आज क्या फरमाईश है बिटिया रानी की?

“जी कहिए” उत्तरपेक्षी रामू काका ने बात आगे बढ़ाई। 
“देखिये, ये गोरे रंग वाले मुझे पसंद नहीं, भूरा या काला होना चाहिए। चितकबरा भी चलेगा। पर कद काठी ऊंची चाहिए“
“चितकबरा??” विस्मृत मालवीय जी मन ही में बुदबुदाये। यहाँ चितकबरा शब्द उन्हे इतना अटपटा लगा कि भूरा या काला शब्द अप्रासंगिक होते हुए भी उनके मश्तिष्क में तरंग उत्पन्न करने में अक्षम रहे।
“जी हाँ, और समझदार होना चाहिए, जो बात समझ जाये और कहा माने।“
“जी, सो तो है” हाँ, यह बात कुछ जच रही है।
“यहाँ वहाँ मुह मारता ना फिरे, यूं न हो कि हर किसी के आगे दुम हिलाता रहे”
“जी, चरित्र नाम की भी कोई चीज है, और फिर अपनी इज्जत तो अपने ही हाथ होती है।“
“ज्यादा गुर्राये नहीं, मुझे पसंद नहीं जो हरदम काटने को दौड़ते हैं”
“जी, स्वभाव शांत होना चाहिए, समझ गया”
“नस्ल का विशेष ध्यान रहे, इसी शहर में मिले आवशयक नहीं, हम किसी दूसरे शहर से भी ला सकते हें”
“जी, आपका मतलब अच्छे खानदान का होना चाहिए”
बिटिया को व्यंग्य पसंद आया। अपने दिवस्वप्न से बाहर निकाल उसने मुस्कुरा कर मालवीय जी को उपकृत  किया। पुरुस्कृत मालवीय जी ने तुरंत खीसे निपोर दिये। बिटिया ने उन पर ध्यान न देते हुए पुन: स्वप्नलोक मे प्रवेश किया।
“बस एक बार मिल जाये, तो सदा अपने साथ साथ लिए घूमूंगी, जब जी करेगा बाहों मे उठा लूँगी। उसे बहुत प्यार करूंगी, उसका ध्यान रखूंगी, और वो मेरे साथ नित नए खेल खेलेगा.......”
बेचारे मालवीय जी को इन निजी शृंगार रस से सराबोर कल्पनाओं का सार्वजनिक होना उचित ना जान पड़ा। इससे पहले के वो और अधिक लाल हो कर रंग छोडने लगते, उन्हे बिटिया को टोकना उचित लगा।
“ठीक है..... ठीक है.....बेटा, मैं समझ गया। समझ गया मैं। बस जल्द ही विज्ञापन तयार करवा देता हूँ” कहते हुए घिघयाये और खिसक लिए।
“विज्ञापन?? क्यों?? किसका??” क्षणिक बिटिया स्वप्न लोक से बाहर आ कर सकपकाई, इधर उधर देखा, जब कुछ समझ ना आया तो पुन: स्वप्न लोक में अपने प्रिय श्वान से बतियाने लगी – “अले मेले बाबू को भूक लगी है.....”

दृश्य दो –
टेबल पर नाना प्रकार के चित्र बिखरे हुए हैं। पिताजी एक विचित्र से दिखने वाले पुरुष का चित्र हाथ मे ले ज़ोर से ठहाका लगा रहे हैं। मालवीय जी साथ ही में करबद्द, अर्धनतमस्तक अवस्था में अगले आदेश की प्रतीक्षा में खड़े हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं की उन्हे हँसना है अथवा रोना है । तभी बिटिया रानी हाथ में चाबी का छल्ला घुमाते हुए प्रवेश करती है।
“क्या बात है पिताजी, क्यू इतना हंस रहे हो ?”
“देखो मालवीय जी तुम्हारे लिए कितने रिश्ते ले कर आए हैं?”
“रिश्ते? क्यूँ? कहाँ से?
“आपके लिए जो वैवाहिक विज्ञापन दिया था, उसीके प्रतिउत्तर हैं” मालवीय जी ने स्पष्ट किया। 
बिटिया दो चार चित्र उलट पुलट कर देखती हैं – “विज्ञापन? किससे पूछ कर? और ये कैसी भद्दी सूरत के लड़के हैं?”
“आप ही से तो पूछा था बिटिया। इसमे एक भी गोरा नहीं है, जैसा तुम चाहती थीं। कुछ भूरे हैं, कुछ काले हैं। बस चितकबरा नहीं मिला” मालवीय जी अपनी सफाई में बोले।
“ओह! तो आप उस दिन इस विज्ञापन की बात कर रहे थे? पर मैं तो....”
“आपने तो कहा था ऊंची कद काठी चाहिए”
“हाँ तो”
“समझदार हो, स्वाभिमानी हो, किसी के आगे दुम ना हिलाये”
“हाँ पर...”
“जो गुस्सैल ना हो, गुर्राये नहीं.....”
“हाँ वो तो ठीक है.....”
“ऊंचे खानदान का हो...... तो देखो इस देश के बड़े से बड़े घराने के रिश्ते हैं आपके सामने”
“पर मैंने शादी की बात कब करी”
“तो फिर विज्ञापन में ये सूचनाएँ किस लिए थीं”
“में तो अपने लिए कुत्ते का पिल्ला चाह रही थी, बचपन से मेरी इच्छा थी”
“कुत्ते का पिल्ला???” मालवीय जी तीक्ष्ण स्वर में चिल्लाये। सहसा उन्हे भान हुआ - लगता है बड़ी भूल हो गयी। फिर मिमयाते हुए क्षमाभाव से बोले “ओह, मुझे लगा पति की तलाश है....”
“कैसी बात करते हैं मलवीय जी आप भी?”
उन्हे उत्तर तो देना ही था, सो बोले “वैसे बिटिया दोनों में कोई अधिक अंतर नहीं है, आप चाहो तो इनमे से ही किसी एक को चुन सकती हो...”
कुछ पलों के लिए कक्ष में सन्नाटा ....
यद्यपि पिताजी इस तर्क से सहमत दिखे, परंतु बिटिया न जाने क्यूँ पैर पटक कर चली गयी। 

अपने अपने अनुभव।



॥इति॥

- अशेष    
२८.०७.२०






21 comments:

  1. मालवीय जी तगडा अनुभव रखते है लगता है।😀 वैसे कोरोना काल में हल्की फुल्की फुलझड़ी जलाने के लिए साधूवाद।

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    1. ये नई परिभाषा दी आपने।

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  3. वाह बहुत उत्कृष्ठ लेखनी डॉक्टर साहब👌👌

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  4. गजब हास्य व्यंग्य ....👌👌

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  5. Hahahha! Wow! This is so good!

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    1. Thank you. I am glad you liked it.

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    2. Haha...That's an amazing piece of writing... Indeed!

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  6. Haha... That's an amazing piece of writing... Indeed! -Sonali Dubey

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  7. लंबे समय के बाद एक उत्कृष्ट व्यंग्य, बिना कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि वाला। वरना आजकल या तो भक्तों के व्यंग्य सुन रहा हूं या देशद्रोहियों के।

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  8. बहुत खूब अशेष जी।

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    1. धन्यवाद निखिल भाई

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  9. व्यंग है।इसलिए अच्छा लग रहा है। यदि ऐसी ही सोच वास्तविक जीवन में हो (चाहे भावी पति की या पत्नी की) तो वैवाहिक जीवन या तो पूर्णतया सफल होता है या पूर्णतया विफल। 1 सहज समभाव की धारणा के लिए इसमें कोई स्थान नही है। गहराई से सोचे तो आजकल की सामाजिक परिस्थिति और बढ़ते पारवारिक कलह की पृष्ठभूमि इसमे मिल जाएगी।

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    1. आप तो गम्भीर हो गए मित्रवर!
      टिप्पणी के लिए धन्यवाद।

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