Sunday, July 26, 2020

एक सामान्य वैवाहिक विज्ञापन



एक सामान्य वैवाहिक विज्ञापन
“व्यंग्य”


दृश्य एक -

"हम्म!" वह बोली, "अब क्या बताऊँ, क्या चाहिए? बचपन से ही उसके स्वप्न देख रही हूँ।"
"जी" सामने करबद्ध खड़े मालवीय जी ने तुरंत कहा। शब्दों की गहराई में जाने की ना तो उनकी कोई रुचि थी, ना ही आवश्यकता। उनका काम था, जो बिटिया कहे सो नोट करना। अब उन्हे अगले वाक्य की प्रतीक्षा थी।
मालवीय जी कहने को तो बिटिया के धनाड्य पिता के सेक्रेटरी थे, परंतु वास्तविकता में उनकी उपयोगिता ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों वाले रामू काका से अधिक न थी। बचपन से ही बिटिया के लिए बिस्कुट लाना हो या गुड़िया, अथवा स्कूल, कॉलेज की फीस हो, सभी का निष्पादन मालवीय जी ने सहर्ष किया। अब तो बिटिया सयानी हो गई है। एमबीए-शैमबीए भी हो गया है। पर आज क्या फरमाईश है बिटिया रानी की?

“जी कहिए” उत्तरपेक्षी रामू काका ने बात आगे बढ़ाई। 
“देखिये, ये गोरे रंग वाले मुझे पसंद नहीं, भूरा या काला होना चाहिए। चितकबरा भी चलेगा। पर कद काठी ऊंची चाहिए“
“चितकबरा??” विस्मृत मालवीय जी मन ही में बुदबुदाये। यहाँ चितकबरा शब्द उन्हे इतना अटपटा लगा कि भूरा या काला शब्द अप्रासंगिक होते हुए भी उनके मश्तिष्क में तरंग उत्पन्न करने में अक्षम रहे।
“जी हाँ, और समझदार होना चाहिए, जो बात समझ जाये और कहा माने।“
“जी, सो तो है” हाँ, यह बात कुछ जच रही है।
“यहाँ वहाँ मुह मारता ना फिरे, यूं न हो कि हर किसी के आगे दुम हिलाता रहे”
“जी, चरित्र नाम की भी कोई चीज है, और फिर अपनी इज्जत तो अपने ही हाथ होती है।“
“ज्यादा गुर्राये नहीं, मुझे पसंद नहीं जो हरदम काटने को दौड़ते हैं”
“जी, स्वभाव शांत होना चाहिए, समझ गया”
“नस्ल का विशेष ध्यान रहे, इसी शहर में मिले आवशयक नहीं, हम किसी दूसरे शहर से भी ला सकते हें”
“जी, आपका मतलब अच्छे खानदान का होना चाहिए”
बिटिया को व्यंग्य पसंद आया। अपने दिवस्वप्न से बाहर निकाल उसने मुस्कुरा कर मालवीय जी को उपकृत  किया। पुरुस्कृत मालवीय जी ने तुरंत खीसे निपोर दिये। बिटिया ने उन पर ध्यान न देते हुए पुन: स्वप्नलोक मे प्रवेश किया।
“बस एक बार मिल जाये, तो सदा अपने साथ साथ लिए घूमूंगी, जब जी करेगा बाहों मे उठा लूँगी। उसे बहुत प्यार करूंगी, उसका ध्यान रखूंगी, और वो मेरे साथ नित नए खेल खेलेगा.......”
बेचारे मालवीय जी को इन निजी शृंगार रस से सराबोर कल्पनाओं का सार्वजनिक होना उचित ना जान पड़ा। इससे पहले के वो और अधिक लाल हो कर रंग छोडने लगते, उन्हे बिटिया को टोकना उचित लगा।
“ठीक है..... ठीक है.....बेटा, मैं समझ गया। समझ गया मैं। बस जल्द ही विज्ञापन तयार करवा देता हूँ” कहते हुए घिघयाये और खिसक लिए।
“विज्ञापन?? क्यों?? किसका??” क्षणिक बिटिया स्वप्न लोक से बाहर आ कर सकपकाई, इधर उधर देखा, जब कुछ समझ ना आया तो पुन: स्वप्न लोक में अपने प्रिय श्वान से बतियाने लगी – “अले मेले बाबू को भूक लगी है.....”

दृश्य दो –
टेबल पर नाना प्रकार के चित्र बिखरे हुए हैं। पिताजी एक विचित्र से दिखने वाले पुरुष का चित्र हाथ मे ले ज़ोर से ठहाका लगा रहे हैं। मालवीय जी साथ ही में करबद्द, अर्धनतमस्तक अवस्था में अगले आदेश की प्रतीक्षा में खड़े हैं। वे तय नहीं कर पा रहे हैं की उन्हे हँसना है अथवा रोना है । तभी बिटिया रानी हाथ में चाबी का छल्ला घुमाते हुए प्रवेश करती है।
“क्या बात है पिताजी, क्यू इतना हंस रहे हो ?”
“देखो मालवीय जी तुम्हारे लिए कितने रिश्ते ले कर आए हैं?”
“रिश्ते? क्यूँ? कहाँ से?
“आपके लिए जो वैवाहिक विज्ञापन दिया था, उसीके प्रतिउत्तर हैं” मालवीय जी ने स्पष्ट किया। 
बिटिया दो चार चित्र उलट पुलट कर देखती हैं – “विज्ञापन? किससे पूछ कर? और ये कैसी भद्दी सूरत के लड़के हैं?”
“आप ही से तो पूछा था बिटिया। इसमे एक भी गोरा नहीं है, जैसा तुम चाहती थीं। कुछ भूरे हैं, कुछ काले हैं। बस चितकबरा नहीं मिला” मालवीय जी अपनी सफाई में बोले।
“ओह! तो आप उस दिन इस विज्ञापन की बात कर रहे थे? पर मैं तो....”
“आपने तो कहा था ऊंची कद काठी चाहिए”
“हाँ तो”
“समझदार हो, स्वाभिमानी हो, किसी के आगे दुम ना हिलाये”
“हाँ पर...”
“जो गुस्सैल ना हो, गुर्राये नहीं.....”
“हाँ वो तो ठीक है.....”
“ऊंचे खानदान का हो...... तो देखो इस देश के बड़े से बड़े घराने के रिश्ते हैं आपके सामने”
“पर मैंने शादी की बात कब करी”
“तो फिर विज्ञापन में ये सूचनाएँ किस लिए थीं”
“में तो अपने लिए कुत्ते का पिल्ला चाह रही थी, बचपन से मेरी इच्छा थी”
“कुत्ते का पिल्ला???” मालवीय जी तीक्ष्ण स्वर में चिल्लाये। सहसा उन्हे भान हुआ - लगता है बड़ी भूल हो गयी। फिर मिमयाते हुए क्षमाभाव से बोले “ओह, मुझे लगा पति की तलाश है....”
“कैसी बात करते हैं मलवीय जी आप भी?”
उन्हे उत्तर तो देना ही था, सो बोले “वैसे बिटिया दोनों में कोई अधिक अंतर नहीं है, आप चाहो तो इनमे से ही किसी एक को चुन सकती हो...”
कुछ पलों के लिए कक्ष में सन्नाटा ....
यद्यपि पिताजी इस तर्क से सहमत दिखे, परंतु बिटिया न जाने क्यूँ पैर पटक कर चली गयी। 

अपने अपने अनुभव।



॥इति॥

- अशेष    
२८.०७.२०






Wednesday, March 25, 2020

उफ़! ये तुम्हारी वायरल अदाएं




      जो सज्जन इसे पढ़ सकते हैं, बहुत संभव है वो इसे समझ नही सकेंगे। पढ़ना शिक्षित होना दर्शाता है वरन समझना, समझदारी। जो शिक्षित हो वो समझदार भी हो, यह आवश्यक नही। इस वाक्य का उलट भी उतना ही प्रासंगिक है – समझदार का शिक्षित होना कदापि आवश्यक नही। प्राय: शिक्षित अपनी नासमझी छुपा लेते है, परंतु अशिक्षित अपनी समझदारी प्रदर्शित ही नही कर पाते। इस प्राकथ्थन के साथ ही पुन: आरंभ करते हैं - जो सज्जन इसे पढ़ सकते हैं, बहुत संभव है वो इसे समझ नही सकेंगे। अर्थात, मैं जिस गाने की बात कर रहा हूँ वह मलयालम भाषा में है और उस गीत का हिन्दी अनुवाद अभी तक नही हो पाया है। और हिन्दी एवं मलयालम, दोनों भाषाओं को पढ़ने और समझने वालो की संख्या नगण्य है। जो सज्जन इसे अभी भी नही समझे वे शर्तिया सोशल मीडिया से कोसों दूर हैं। क्योंकि इस वसंतोत्सव के अँग्रेजीकृत वेलेंटाईन दिवस पर यह मलयाली गीत सभी आभासी सामाजिक माध्यमों पर चोटी की पायदान पर है, और व्हाट्स एप के प्रत्येक ग्रुप में प्रति घंटे की आवृत्ति से प्रेषित किया जा रहा है। चंचल नयन वाली इस सुंदरी को राष्ट्रीय प्रेयसी घोषित किया जा चुका है। तीस सेकंड के इस वीडियो ने पूर्व में उफान मचाने वाले कोलावेरी डी के सभी कीर्तिमानों को ध्वस्त करने का निश्चय किया है। चाय की केतली में उफान थमने के पश्चात कोलावेरी डी के नायक नायिका और गायक मंडली आज कल पकोड़े तल जीवन यापन कर रहे हैं।
      शीत ऋतु जाने को है और बसंत ऋतु के आगमन की उत्सुकता दिखाई दे रही है। नगरों में, सड़क किनारे गिनती के बचे वृक्ष नए फूल बनाने की तैयारी में लग चुके हैं।  उन्मुक्तता चरम की ओर अग्रसर है, तरुण मन में उमंगे हिलोरे ले रही हैं। ऐसे में भला कोई कब तक सैनिक शिविरों पर दुर्दांत आतंकी हमलों के समाचार देखे। कौन है जो इन समाचारों से मुक्ति दिलाये! ऐसे वातावरण में इस विडियो का आना, मानो, चौधरी बलदेव सिंह ने ट्रेन की गति में आने से कुछ ही क्षण पहले सिमरन का हाथ छोड़ दिया हो...... जा सिमरन जा... जी ले अपनी जिंदगी। फिर क्या था, आँख मारने के इशारे को देखकर ही लाखो करोड़ो राज झट जा कर अपनी सिमरन से मिलने को आतुर हो गए। मानो यही विडियो उनकी जिंदगी है। कल तक ये ही युवक पाकिस्तान की ईंट से ईंट बजाने के लिए कुलबुला रहे थे। उधर, प्लेटफॉर्म पर बरसों से कतार में खड़े मूलभूत मुद्दे आज एक बार फिर जाती हुई ट्रेन को कातर दृष्टि से देख पूछ रहे थे... आखिर मेरी बारी कब आएगी? सरकारी तंत्र प्रसन्न है कि जनता मूल मुद्दों की आंधी में अपना मुंह ट्रेंडिंग विडियो में धँसाये मुग्ध है। क्या जनता क्या प्रजा, सभी आनंद में है, वसंत ऋतु जो आ गई है।
      तीखे नयन नक्ष, सांवला रंग, मधुर मुस्कान, अध्ययनरत... किसी हिन्दी दैनिक के वैवाहिकी विज्ञापन से प्रेरित यह युवती जब अपनी भृकुटियाँ ऊपर नीचे कर, इतराती हुई सांकेतिक प्रणय निवेदन करती हो तो युवक का गिर जाना यथोचित है। दंत मंजन के विज्ञापन सी मुस्कान से लेस, गोरापन और मुहासों के लेप लगा कर जैसे ही दाहिनी भृकुटी ऊपर उठी और बाईं आँख मंथर गति से बंद हुई, तभी निर्माता निर्देशक को आभास हो गया कि ये अदा तो वायरल हो कर ही मानेगी। और इस अदा पर गिरने वाले युवकों की संख्या एक नही करोड़ों में है। अब फिल्म जब आएगी तब आएगी, फिलहाल तो आप ट्रेलर का मजा लीजिये। वैसे भी सोशल मीडिया और टी वी चेनलों पर घटना की पूर्णता और सत्यता पर समय का अपव्यय कौन करता है भला। इनकी सामाग्री भी चाइनीज माल जैसी ही है – हर माल बीस रुपये, सस्ती पर ग्यारंटी-रहित। टिकाऊ और उपयोगी रहने के लिए परिश्रम और तत्व नितांत आवश्यक हैं। यदि यह सयानी युवती समय रहते इस मर्म को समझ नही लेती तो वह भी कोलरवेरि-डी, भाग्यश्री, कुमार गौरव व नरेंद्र हीरवानी की तरह चार दिन की चाँदनी के बाद अंधेरी रात में गुम हो सकती है।
      वैसे मैं एक राज की बात बता दूँ, जब आप लखनऊ के नवाब वाजीद अली बन कर इस विडियो में हीरे जैसी सूरत से नैन मटक्का कर रहे थे, तब सूरत के हीरे व्यापारी बैंक को चूना लगा कर परदेस गमन कर चुके थे। आज वे विजय और ललित के साथ बैठ कर शतरंज खेल रहे हैं। और सी बी आई साँप निकाल जाने के पश्चात लकीर को पीटते हुए हर चेनल पर देखी जा सकती है। फिलहाल नीरव जी की ये कातिल अदाएं वायरल हो रही हैं और हमारी नायिका..... उनकी प्रसिद्धि बैंकों के शेयरों के भाव की भांति गर्त की ओर तीव्र गति से अग्रसर है।
आपने पढ़ तो लिया पर क्या आप समझे?

॥इति॥

अशेष
१६.०२.१९

इस संक्रांति....... तिल का ताड़








      दिवाली पर प्रदूषण के निरंतर बढ़ते स्तर का स्वयं सङ्ग्यान लेते हुए सर्वोच्च माननीय ने पटाखों पर निषेधाज्ञा लागू कर दीवाली सूनी कर दी थी। हांलाकि, प्रदूषण इन निर्णयों की अवमानना करते हुए  सुरसा के मुख की भांति नित प्रति नवीन कीर्तीमान रचने मे व्यस्त रहा। माननीय की कृपा रही कि नव वर्ष पर दूकानदारों ने बचे बचाए पटाखे बेच बेच कर दीवाली पर हुई हानि की कुछ भरपाई कर ही ली। और पटाखों ने भी मध्यरात्रि जम कर पीपीएम २.५ उड़ाया। फिर व्हाट्स एपियों मे दुविधा थी कि लोहड़ी पर फिर से प्रदूषण के, अथवा संक्रांति पर निरीह पक्षियों के  पक्ष में माननीय कोई निर्णय न दें दे। पर श्रीमान, लोहड़ी भी खूब मनी, लकड़ियाँ भी जलीं और अगले दिन पतंगे भी बरसाती कीट-पतंगों की भांति पूरे दिन आकाश में भिनभिनाती रहीं। मजाल है अगले दिन किसी समाचार पत्र में या प्राईम टाईम टी वी पर प्रदूषण का अथवा पक्षियों के हताहत होने का कोई भी समाचार आया हो। पर ऐसा हुआ कैसे? और क्यों?
      जब सूर्य देव धनु राशि छोड़ कर मकर राशि मे प्रवेश करते हुए उत्तरायण गति आरंभ कर रहे थे और घर घर में आमजन, तिल के लड्डू, तिल की बर्फी, तिल की गज़क बनाने खाने में व्यस्त थे, तब सुरम्य ल्यूटन की दिल्ली में तिल का ताड़ बनाने का उपक्रम रचा जा रहा था। काव्यात्मक वातावरण था। सौंधी सौंधी धूप खिली थी, गुनगुनी ठंड थी, पीपीएम 2.5 का स्तर भी हानिकारक से गिरकर गंभीर पर अटक गया था। निश्छल बादल नीले आकाश में बेफिक्री के छल्ले बना रहे थे। मद्ध्म पवन पूर्व दिशा की ओर रुक रुक कर बह रही थी। धवल राजसी भवन की प्रष्ठभूमि में हरित घास पर ओस की बूंदे पैरों से कुचले जाने की राह देख रहीं थी। ऐसे दृश्य प्राय: ऋषिकेश मुखर्जी की फिल्मों में होते थे जब अति धनाड्य अधेड़ उम्र के सहनायक कुर्सी पर बैठ कर समाचार पत्र पढ़ रहे होते। तभी रामू काका लंबे तार से बंधा फोन ले कर दौड़े आते। दूसरी ओर से एक गंभीर स्वर सुनाई देता और फिर कहानी की दिशा एवं गति दोनों ही बदल जाती। बस ऐसा ही कुछ यहाँ होने को था। उक्त वर्णित लॉन में चार कुर्सियाँ सजा दी गईं थी, सामने मेज़ पर माईको के ढ़ेर लगे हुए थे। तिल के ताड़ की सुगंध सूंघते पत्रकारों एवं सहकर्मी अभिभाषकों के झुंड ने मेज़ के इर्द गिर्द घेरा बना लिया था जैसे मृत पशु के ऊपर गिद्ध मंडराते हैं। ताड़ से निकलने वाली ताड़ी के रसपान के स्मरण मात्र से ही इस सभा में उपस्थित हर सज्जन के मुख में जिव्हा लपलपाने लगी और लार बाढ़ का रूप ले कर होठों के बांध तोड़ती हुई बाहर टपकने लगी। बस अब उन चार अधेड़ उम्र के सहनायकों की प्रतीक्षा थी जो एक नया समाचार गढ़ने वाले थे।
      फिर जो हुआ वह लोकतांत्रिक परिकल्पना से परे था। ना इसकी आशा थी, ना ही आशंका। ना पहले कभी हुआ, और ईश्वर ना करे भविष्य में कभी हो। इस सर्वोच्च संस्थान के वरिष्ठ सम्माननीय अपने ही वरिष्ठतम सहकर्मी की कार्यप्रणाली से रुष्ठ थे। यहाँ तक तो ठीक, पर इस असहमति को सार्वजनिक करने के पीछे क्या उद्देश्य था, यह कोई भी टी वी चेनल गत एक सप्ताह से नही बूझ पा रहा है। अरे भाई वह रोस्टर का मास्टर है, रिंग मास्टर थोड़े ही है। अगर आज नही माना तो कल मान जाएगा, खा तो नही जाएगा। और यदि नही भी माना तो क्या? अगला नंबर आपका है, जब आप पदासीन हों तो यह परिपाटी बदल देना। यूं बखेड़ा खड़ा करने से क्या लाभ। लोकतन्त्र में भी स्वतन्त्रता असीमित नही है, उसकी अपनी मर्यादायें और सीमाएं हैं। आप चाहते हो की जनता निर्धारित करे कि  संविधान प्रदत्त सर्वोच्च संस्थान के शीर्षपद पर आसीन गणमान्य का भविष्य जनता तय करे। अरे जनता कचरे को सही डब्बे में डाल दे और अपनी लेन में गाड़ी चला ले तो बहुत है। गूगल कर कर के भला कोई चिकित्सक बन सकता है? आप ही इस मर्ज का इलाज कर सकते हैं, हमसे उम्मीद ना लगाएँ। इन प्रेस वार्ताओं से समाचार पत्र की बिक्री और टी आर पी ही बदल सकती है, समस्याएँ या हालात नही। छोटा मुंह बड़ी बात है- घर की बात है, घर में ही सुलझा लें, यूं अनर्गल तिल का ताड़ ना बनाएँ।

॥इति॥

अशेष
१७.०१.१८
चित्र: भास्कर.कॉम

जो दिखाई दे, वही सत्य है






      उदघाटन कार्यक्रम के पश्चात, मंत्री जी ने टी वी केमरे की ओर जिस धृष्टता से देखा तभी लग गया था कि फीता तो कट गया अब नाक कटने वाली है। और मंत्री जी तो ठहरे मंत्रीजी, सो निराश भी नही किया। जब वो थानेदार थे, तब क्रोध में आगंतुक की कुर्सी को लात मार कर गिरा देते और कहते – ये तुम्हारे बाप का घर नही है, जब तक बैठने को ना कहा जाये तब तक खड़े रहो। और सामने खड़े प्राण के प्राण सूख जाते, बालकनी वाले तालियाँ बजाते और स्टाल वाले चवन्नियाँ पर्दे पर उछाल देते। फिल्म हिट हो जाती। पर वो दिन और थे, मंत्रीजी, अब आप पुलिसिया नौकरी में नही हैं, जहां किसी के भी कान के नीचे दो बजाओ और जो चाहो मनवा लो। आप नेता हैं, मंत्री हैं, और जो आप बोल गए उसका आपके विभाग से भी कोई संबंध नही। फिर किसी स्थापित वैज्ञानिक शोध पर कोई टीका टिप्पणी करने से पहले आपको कुछ झिझक भी नही आई। क्या सोचे, गब्बर खुस होगा? सबासी देगा? अब पता नही, वे टी वी केमरों को ढूंढ रहे थे या टी वी केमरे उन्हे। पर जैसे ही टी वी केमरों को सम्मुख पा कर उनके अधरों में हलचल हुई, पत्रकारों का मन तरंगित हो उठा। उनके मन में लड्डू फूटे, बूंदी के दाने चारों ओर बिखर गए और मीडिया उन दानो को अगले कई दिनों तक बटोरती रही।
      यह समाचार लोकतांत्रिक जंगल में आग की तरह फैल गया। पुरातत्ववेत्ता अपनी शोध पत्रों में शिलाओं की भांति जड़ मुद्रा में लीन हो गए। भूगर्भशास्त्रियों को ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो उन्होने अभी तक मात्र अपनी ही कब्र खोदी थी। अभी तक की स्थापित वैज्ञानिक अवधारणाए ट्विन टावर के भांति भरभरा कर गिर रहीं थी और प्रत्यक्षदर्शी उससे उठे धूल के गुबार में सने जा रहे थे। कक्षा नौवी के छात्रों ने पाठ्यक्रम बदले जाने की संभावना देखते हुए अपनी पाठ्यपुस्तक के पृष्ठों को नोंच कर निकाला और हवाई जहाज बनाए। फिर सहपाठियों पर उछाल उछाल कर आनंदित हुए। समस्त वैज्ञानिक जगत में खलबली मच गई। ज्ञानी साधु संत मीमांसा करने लगे। धर्म संसद का आयोजन हुआ।  पुरोहित, वेद उपनिषदों के प्रकांड पंडित अपने ज्ञान सागर में डुबकी लगाने लगे। पुराने शिलालेखों, वेद, पुराण व महाकाव्यों का पुन: अध्ययन आरंभ हो गया ताकि कोई तो साक्ष्य मिले। जब यह समाचार प्रवासी भारतीयों को भेजे गए व्हाट्स एप पोस्ट के माध्यम से विश्व के कोने कोने में पहुंचा तो समस्त विश्व स्तब्ध रह गया। नेट जियो, डिस्कवरी और हिस्ट्री चेनल वाले अपने अभिलेखागारों में अभी तक बनाई गई फिल्मों के अध्ययन में व्यस्त हो गए। नवीन प्रतिपादित सिद्धांतों के स्पष्टीकरण के लिए घने जंगलों में गुप्त केमरे लगाए गए जिन पर वैज्ञानिक चाय और कॉफी पी कर रात दिन आँखों को गड़ाए बैठे रहे। कुछ भी नया न मिलने की खीज और अवसाद के लक्षण उनके मुख पर तथा हाव भाव में परिलक्षित होने लगे थे। शांति के लिए बराक ओबामा को नोबल पुरुस्कार देने वाली समिति संभावित परिस्थितियों को लेकर आशंकित थी। कहीं ऐसा तो नही कि गांधी के अतिरिक्त हमने एक और भारतीय को अनदेखा कर दिया? ऐसा क्या था जो मंत्रिवर को ज्ञात था परंतु शेष विश्व इक्कीसवी सदी में भी अनभिज्ञ था।
      समय निकट आता जा रहा था। कौतूहल बढ़ता जा रहा था। अंतत: समस्त विश्व के ज्ञानिजनों ने सी-बी-आई का अनुसरण कर इस केस में भी क्लोज़र रिपोर्ट प्रस्तुत कर मंत्रीजी के सिद्धांतों को क्लीन चिट देने का निर्णय किया। यद्यपि मंत्रीजी का यह कथन, सिद्धान्त न हो कर सिद्धहंता सिद्ध हो रहा था, परंतु क्या करते। अज्ञानी विश्व ने शताब्दियों से जिसे सत्य समझा, उसे सिद्ध करने वाले साक्ष्य उपलब्ध थे ही नही। समस्त ज्ञानी विज्ञानी विश्व एक ओर, हमारे मंत्रीजी एक ओर। उन सभी ने हमारे मंत्रीजी से करबद्द अभयदान की आपेक्षा रखते हुए स्वीकार किया कि, हे न्यायमूर्ति! आप उचित कह रहे हैं.... जो दिखे वही सत्य है। हमने गत तीन हजार वर्षों के आलेख, किवदंतियों, लोक काथाओ का अध्ययन किया, परंतु यह सिद्ध नही हुआ कि कभी भी, किसी ने भी बंदर को मनुष्य में परिवर्तित होते हुए देखा हो। अत: बंदर हमारे पूर्वज नही हो सकते। कपि नही, कदापि नही। यह बात अलग है कि कुछ मनुष्यों को गधे और उल्लू जैसी बातें करते सुना है... पर उससे कुछ सिद्ध नही होता।
॥इति॥ 

अशेष
०७.०२.१८


तेरा भारत, मेरे भारत से महान कैसे






                जब माताश्री के नारे गरीबी हटाओ से गरीबी हट गई, तब सुपुत्रश्री ने राजनीति में आते ही घोषणा कर दी - मेरा भारत महान। चूंकि, उस समय प्रशंसकों एवं अनुयायियों को भक्त की संज्ञा से सम्मानित नही किया जाता था, अत: प्रजा ने सहज ही स्वीकार कर लिया कि उनका भारत महान है। हमने दीवारें रंग दी, ट्रक और ट्रेक्टर के पीछे लिखवा दिया, यहाँ तक कि टी शर्ट पर भी चितर दिया।  और फिर दूरदर्शन पर क्रिकेट खिलाड़ी और धावक हाथ में मशाल लिए हुए दौडते दिखाई देते, विज्ञापन के अंत में केसरिया एवं हरी पट्टिकाएं इठलाती हुई, अपनी ही धुरी पर घूमते हुए अशोक चक्र के इर्द गिर्द बल खातीं तिरंगे की प्रतिकृति बनाती और अंत में जय हे जय हे की धुन पर जब लिखा हुआ आता, तो इस बात में लेश मात्र भी संदेह नही रह जाता कि मेरा भारत महान है। लगभग आधा दशक, सात आम चुनाव और नौ प्रधान मंत्रियों के बाद फ़ेसबुक, व्हाट्स एप तथा ट्विटर के अथक प्रयासों से अब जा कर जनता को यह ज्ञात हुआ कि राजनीति में भविष्योंमुखी सकारात्मक शब्दों के संग्रह को ही जुमले कहते हैं और वे वास्तविकता से कोसों दूर होते हैं। तभी से उन्होने अच्छे दिन की प्रतीक्षा करना त्याग दिया। नारों के उद्देश्य एवं विश्वस्नीयता पर संदेह हो सकता है परंतु इस बारे में कोई दो मत नही मेरा भारत महान है, था और रहेगा। और यह बात देश का प्रत्येक नागरिक स्वीकार भी करता है, विवाद तो मेरा भारत की परिभाषा को लेकर है।
      भारत विविधताओं का देश है। अत: यहाँ विवादों में भी विविधता है। कोस कोस पर पानी और चार कोस पर वाणी बदलने वाले इस देश में विद्वानों का कोई आभाव नही है, फलस्वरूप, विवादों का भी नही। कभी कभी तो इस बात पर भी विवाद हो जाता है कि इस विषय पर विवाद क्यों है या इस विषय पर कोई विवाद क्यों नही करता? हर एक पूत मातृभूमी का सपूत है, उसकी रक्षा को तत्पर, उसके लिए अपनी जान तक देने को आतुर। परंतु ऐसा जान पड़ता है कदाचित इतिहास अथवा भौगोलिक अल्पज्ञान के फलस्वरूप इन्हे निकटवर्ती राष्ट्र और पड़ोसी मुल्क से अधिक शत्रु अपने ही देश में दिखाई देते हैं। सी बी एस ई से निवेदन है कक्षा नौंवी के पाठ्यक्रम में परिवर्तन करे, क्या पता काम कर जाये। एक ओर धार्मिक उन्माद, सामाजिक विघटन में सिबाका गीत माला की पहली पायदान पर कई शताब्दियों से जमा हुआ है, वहीं जाति, भाषा, आरक्षण, शिक्षा, भोजन आदि के नए नए सुर अपना स्थान बनाने की होड में हैं। प्रत्येक चुनाव के पहले प्रत्येक पार्टी के सयाने, सयानों की भांति अपनी अपनी सूची का विमोचन करते हैं और अपना अपना राग अलापते हैं। चैनल वाले इन्हे चला चला कर छद्म टी आर पी के बिटकोइन बटोरते हैं।

      महत्वपूर्ण राज्य के चुनाव की अधिसूचना के पहले और गणतन्त्र दिवस के लंबे सप्ताहांत पर एक फिल्म प्रसारित हुई। एक व्यावसायिक अभिव्यक्ति जिसका उद्देश्य मात्र कुछ सौ करोड़ रुपये कमाना ही है, क्यों विवाद का कारण बन गई? भाई जब आपको सर्वज्ञाता त्रिकालदर्शियों ने फिल्म बनने से पहले ही शूटिंग के समय मार पीट कर के और सेट तोड़ कर बता दिया था की हमारी भावनाएं आहत होने वाली हैं, तो क्यों समझ नही आया। आपको क्या पता नही था, कि फिल्म का ट्रेलर, मूल फिल्म से भिन्न नही होता है। आपके तो सौ करोड़ बन गए, जो लाखों करोड़ फूक दिये गए, उनका क्या? और दूसरी ओर, आप भाई लोग! आपकी सेना को फिल्म की कहानी लिखने से पहले ही अपने होने वाले अपमान की जानकारी कैसे हो गयी? और अगर इतना पता ही था तो इतना भी पता होना चाहिए था, की इससे कुछ होना जाना नही है। बसें जलाकर, पत्थर फेंक कर फिल्म का विज्ञापन भला कौन करता है? देश का एक धड़ा अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता को लेकर चिंतित है तो दूसरी ओर इस अभिव्यक्ति से होने वाले तथाकथित अपमान से व्यथित है। दोनों के अपने अपने भारत हैं। दोनों प्रण ले चुके हैं कि मेरे भारत में यह होने नही देंगे। तेरा भारत बनाम मेरा भारत के इस द्वंद में भारत की पराजय निश्चित है। क्या कभी हमारा भारत महान की कल्पना इस महान भारत में साकार होगी?

॥ इति॥

अशेष
३१.०१.२०१८ 

‘पहले आप’… ‘पहले आप, मेरे बाप’






व्यंग्य ल     दृश्य एक...
      चौराहे जाम, मुख्य मार्ग जाम, देखते ही देखते जाम छलक गया गलियों में। पुलिसकर्मी नदारद, लाल बत्तियाँ गुल, व्यवस्था धुआँ धुआँ। राजनीतिक अतिक्रमण से आधी हो गई सड़कों पर व्यक्तिगत समृद्धि को दर्शाती कारें एक दूसरे से आगे निकलने के होड में गुत्थमगुत्था। चरमराई व्यवस्था से गुस्साई जनता अपने बाल और एक दूसरे के कॉलर खींचने पर विवश। खट – खट, घर्र-घर्र, पीं-पीं, पों-पों, घों-घों की ध्वनियों से प्रतिस्पर्धा करते एक दूसरे की ओर दागे जा रहे अपशब्दों के कर्कश स्वर।
      रमेश कार चला रहा है और सुरेश साथ में बैठा है।
रमेश- यार आजकल दिन पर दिन जाम बढ़ता ही जा रहा है।
सुरेश- हाँ यार! सड़क पर चलना ही दूभर है। दस मिनट के रास्ते को एक एक घंटा लगता है।
“अगर सभी सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें तो यह समस्या सुलझ सकती है”
"पता नही क्यों लोगों को ये बात समझ नही आती। और सड़क को तो अपनी निजी संपत्ति समझते हैं।"
"वो देखो उस मूर्ख को, गलत दिशा से आगे जा रहा है"
"हाँ उसीके पीछे चलते हैं, कानून पालन का सारा ठेका हमने थोड़े ही ले रखा है।"
"हा हा हा सही कहा मित्र"
कुछ देर बाद जाम गहरा हो गया... अब तो एक इंच भी गाड़ी नहीं खिसक रही...
"सरकार को नई कारें ही बेचना बंद कर देनी चाहिए... मालूम है सिंगापुर में क्या होता है........"
"हाँ भाई पर यह सुझाव तुम सरकार को दशहरे के बाद ही देना, मुझे नई कार खरीदनी है"
"हा हा हा.... फिर तो पार्टी देना पड़ेगी"
"हा हा हा ....क्यों नही, अवश्य"

दृश्य दो....
ताजी पुते हुए स्वच्छ भारत के विज्ञापान के नीचे गंदी नाली के सामने बेतरतीब खड़े चाट के ठेले। हर ठेले के बगल में झूठन और दोने के ढेर। साथ लगी दीवार पर सजे हुए पीक के निशान। ठेले पर खुली हुई चटनी और छोले के बर्तन। बड़े से तवे पर रखी आलू की टिक्कियाँ कूड़े के ढेर पर बैठी मक्खियों को सादर निमंत्रण दे रही हैं। हर ठेले पर बगल के ठेले से अधिक भीड़। भीड़ में हर एक व्यक्ति दूसरे से अधिक उतावला।
रमेश और सुरेश इन्ही में से किसी एक ठेले पर अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
“भैया यहाँ कितनी गंदगी फैली हुई है।”
“क्या करें साब, मुनसीपलटी सफाई ही नही करती। सब के सब निकम्मे और चोर हैं।”
“अरे तो आप ही क्यों नही सफाई करते हो। बीमार पड़ गए तो।”
“हुजूर हारी-बीमारी तो लगी रहती है, अब हम सफाई करने में लग गए तो आपको टिक्की कौन खिलाएगा?” कहते हुए दोने में छोले और चटनी की परत के नीची दबी, मसली हुई गरमा गरम टिक्की प्रस्तुत की।
“हा हा हा... हाँ यह भी ठीक है।”
पालक झपकते ही दोनों ने आधी आधी टिक्की उदरस्थ कर ली। रमेश, सुरेश से –
“बस कर अब दोना भी खाएगा क्या? इसे तो फेंक दे भाई।”
“कूड़ादान कहाँ है?
“पूरी गली ही कूड़ादान बना रखी है इन लोगों ने।”
“ठीक है यहीं फेंक देता हूँ, शहर की सफाई का ठेका सिर्फ हमने ही थोड़ी ले रखा है।”
“हा हा हा... सही कहा मित्र”

दृश्य तीन...
केंटीन में बेतरतीब लगी टेबलें और आस पास सजी कुर्सियाँ। चाय के आधे भरे गिलासों के इर्द गिर्द कुंठा से पूरे भरे हुए कुछ मित्र। कक्षा अधूरी छोड कर देश की समस्याओं पर बैठक। पूरे देश को बदलने का माद्दा रखते हैं। बस कोई इतना बता दे कि आरंभ कहाँ से करना है।
रमेश और सुरेश भी इन्ही मित्रों के साथ हैं।
“इस देश का तो पूरा सिस्टम ही खराब है”
“सही कहता है... सब से पहले तो इस शिक्षा व्यवस्था को बदलना चाहिए”
“अमरीका को ही देख लो...”
“सारे नेताओं को चौराहे पर खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए”
“और जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं..... मन करता है इतने जूते मारूँ की रिश्वत मांगना भूल जाएँ”
“सही कहा मित्र”
सूत्रधार: हम सभी दूसरों को सुधारना चाहते हैं, स्वयं बदलने के इच्छुक नही। पहले-आप पहले-आप में गाड़ी जाती रहेगी। अरे मेरे बाप, पहले आप अपने को तो सुधारो, देश स्वयं ही बादल जाएगा।
“हा हा हा...सही कहा मित्र”
॥इति॥

"अशेष"
२५.१२.१७




Tuesday, March 24, 2020

प्रस्तावना

" अशेष " मेरा छद्म नाम है।

यह ब्लॉग मेरी प्रकाशित व अप्रकाशित रचनाओं का संकलन हैं।