व्यंग्य ल दृश्य एक...
चौराहे जाम, मुख्य
मार्ग जाम, देखते ही देखते जाम छलक गया गलियों में। पुलिसकर्मी
नदारद, लाल बत्तियाँ गुल, व्यवस्था
धुआँ धुआँ। राजनीतिक अतिक्रमण से आधी हो गई सड़कों पर व्यक्तिगत समृद्धि को दर्शाती
कारें एक दूसरे से आगे निकलने के होड में गुत्थमगुत्था। चरमराई व्यवस्था से
गुस्साई जनता अपने बाल और एक दूसरे के कॉलर खींचने पर विवश। खट – खट, घर्र-घर्र, पीं-पीं, पों-पों, घों-घों की ध्वनियों से प्रतिस्पर्धा करते एक दूसरे की ओर दागे जा रहे
अपशब्दों के कर्कश स्वर।
रमेश कार चला
रहा है और सुरेश साथ में बैठा है।
रमेश- यार आजकल दिन पर दिन जाम बढ़ता ही जा रहा है।
सुरेश- हाँ यार! सड़क पर चलना ही दूभर है। दस मिनट के रास्ते
को एक एक घंटा लगता है।
“अगर सभी सार्वजनिक वाहनों का उपयोग करें तो यह समस्या सुलझ
सकती है”
"पता नही क्यों लोगों को ये बात समझ नही आती। और सड़क
को तो अपनी निजी संपत्ति समझते हैं।"
"वो देखो उस मूर्ख को, गलत दिशा से
आगे जा रहा है"
"हाँ उसीके पीछे चलते हैं, कानून
पालन का सारा ठेका हमने थोड़े ही ले रखा है।"
"हा हा हा सही कहा मित्र"
कुछ देर बाद जाम गहरा हो गया... अब तो एक इंच भी गाड़ी नहीं
खिसक रही...
"सरकार को नई कारें ही बेचना बंद कर देनी चाहिए...
मालूम है सिंगापुर में क्या होता है........"
"हाँ भाई पर यह सुझाव तुम सरकार को दशहरे के बाद ही
देना, मुझे नई कार खरीदनी है"
"हा हा हा.... फिर तो पार्टी देना पड़ेगी"
"हा हा हा ....क्यों नही,
अवश्य"
दृश्य दो....
ताजी पुते हुए ‘स्वच्छ भारत’ के
विज्ञापान के नीचे गंदी नाली के सामने बेतरतीब खड़े चाट के ठेले। हर ठेले के बगल
में झूठन और दोने के ढेर। साथ लगी दीवार पर सजे हुए पीक के निशान। ठेले पर खुली
हुई चटनी और छोले के बर्तन। बड़े से तवे पर रखी आलू की टिक्कियाँ कूड़े के ढेर पर
बैठी मक्खियों को सादर निमंत्रण दे रही हैं। हर ठेले पर बगल के ठेले से अधिक भीड़।
भीड़ में हर एक व्यक्ति दूसरे से अधिक उतावला।
रमेश और सुरेश इन्ही में से किसी एक ठेले पर अपनी बारी की
प्रतीक्षा कर रहे हैं।
“भैया यहाँ कितनी गंदगी फैली हुई है।”
“क्या करें साब, मुनसीपलटी सफाई ही नही करती। सब के सब
निकम्मे और चोर हैं।”
“अरे तो आप ही क्यों नही सफाई करते हो। बीमार पड़ गए तो।”
“हुजूर हारी-बीमारी तो लगी रहती है, अब हम
सफाई करने में लग गए तो आपको टिक्की कौन खिलाएगा?” कहते हुए
दोने में छोले और चटनी की परत के नीची दबी, मसली हुई गरमा
गरम टिक्की प्रस्तुत की।
“हा हा हा... हाँ यह भी ठीक है।”
पालक झपकते ही दोनों ने आधी आधी टिक्की उदरस्थ कर ली। रमेश, सुरेश
से –
“बस कर अब दोना भी खाएगा क्या? इसे
तो फेंक दे भाई।”
“कूड़ादान कहाँ है?”
“पूरी गली ही कूड़ादान बना रखी है इन लोगों ने।”
“ठीक है यहीं फेंक देता हूँ, शहर की सफाई का ठेका
सिर्फ हमने ही थोड़ी ले रखा है।”
“हा हा हा... सही कहा मित्र”
दृश्य तीन...
केंटीन में बेतरतीब लगी टेबलें और आस पास सजी कुर्सियाँ। चाय
के आधे भरे गिलासों के इर्द गिर्द कुंठा से पूरे भरे हुए कुछ मित्र। कक्षा अधूरी
छोड कर देश की समस्याओं पर बैठक। पूरे देश को बदलने का माद्दा रखते हैं। बस कोई
इतना बता दे कि आरंभ कहाँ से करना है।
रमेश और सुरेश भी इन्ही मित्रों के साथ हैं।
“इस देश का तो पूरा सिस्टम ही खराब है”
“सही कहता है... सब से पहले तो इस शिक्षा व्यवस्था को बदलना
चाहिए”
“अमरीका को ही देख लो...”
“सारे नेताओं को चौराहे पर खड़ा कर के गोली मार देनी चाहिए”
“और जो भ्रष्टाचार में लिप्त हैं..... मन करता है इतने जूते
मारूँ की रिश्वत मांगना भूल जाएँ”
“सही कहा मित्र”
सूत्रधार: हम सभी दूसरों को सुधारना चाहते हैं, स्वयं
बदलने के इच्छुक नही। पहले-आप पहले-आप में गाड़ी जाती रहेगी। अरे मेरे बाप, पहले आप अपने को तो सुधारो, देश स्वयं ही बादल
जाएगा।
“हा हा हा...सही कहा मित्र”
॥इति॥
"अशेष"
२५.१२.१७
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