दिवाली पर प्रदूषण के निरंतर बढ़ते स्तर का स्वयं सङ्ग्यान
लेते हुए सर्वोच्च माननीय ने पटाखों पर निषेधाज्ञा लागू कर दीवाली सूनी कर दी थी। हांलाकि,
प्रदूषण इन निर्णयों की अवमानना करते हुए सुरसा
के मुख की भांति नित प्रति नवीन कीर्तीमान रचने मे व्यस्त रहा। माननीय की कृपा रही
कि नव वर्ष पर दूकानदारों ने बचे बचाए पटाखे बेच बेच कर दीवाली पर हुई हानि की कुछ
भरपाई कर ही ली। और पटाखों ने भी मध्यरात्रि जम कर पीपीएम २.५ उड़ाया। फिर व्हाट्स
एपियों मे दुविधा थी कि लोहड़ी पर फिर से प्रदूषण के, अथवा
संक्रांति पर निरीह पक्षियों के पक्ष में
माननीय कोई निर्णय न दें दे। पर श्रीमान, लोहड़ी भी खूब मनी, लकड़ियाँ भी जलीं और अगले दिन पतंगे भी बरसाती कीट-पतंगों की भांति पूरे
दिन आकाश में भिनभिनाती रहीं। मजाल है अगले दिन किसी समाचार पत्र में या प्राईम
टाईम टी वी पर प्रदूषण का अथवा पक्षियों के हताहत होने का कोई भी समाचार आया हो। पर
ऐसा हुआ कैसे? और क्यों?
जब सूर्य देव
धनु राशि छोड़ कर मकर राशि मे प्रवेश करते हुए उत्तरायण गति आरंभ कर रहे थे और घर
घर में आमजन, तिल के लड्डू, तिल की बर्फी, तिल की गज़क बनाने खाने में व्यस्त थे, तब सुरम्य
ल्यूटन की दिल्ली में तिल का ताड़ बनाने का उपक्रम रचा जा रहा था। काव्यात्मक
वातावरण था। सौंधी सौंधी धूप खिली थी, गुनगुनी ठंड थी, पीपीएम 2.5 का स्तर भी ‘हानिकारक’ से गिरकर ‘गंभीर’ पर अटक गया
था। निश्छल बादल नीले आकाश में बेफिक्री के छल्ले बना रहे थे। मद्ध्म पवन पूर्व
दिशा की ओर रुक रुक कर बह रही थी। धवल राजसी भवन की प्रष्ठभूमि में हरित घास पर ओस
की बूंदे पैरों से कुचले जाने की राह देख रहीं थी। ऐसे दृश्य प्राय: ऋषिकेश
मुखर्जी की फिल्मों में होते थे जब अति धनाड्य अधेड़ उम्र के सहनायक कुर्सी पर बैठ
कर समाचार पत्र पढ़ रहे होते। तभी रामू काका लंबे तार से बंधा फोन ले कर दौड़े आते।
दूसरी ओर से एक गंभीर स्वर सुनाई देता और फिर कहानी की दिशा एवं गति दोनों ही बदल
जाती। बस ऐसा ही कुछ यहाँ होने को था। उक्त वर्णित लॉन में चार कुर्सियाँ सजा दी
गईं थी, सामने मेज़ पर माईको के ढ़ेर लगे हुए थे। तिल के ताड़
की सुगंध सूंघते पत्रकारों एवं सहकर्मी अभिभाषकों के झुंड ने मेज़ के इर्द गिर्द
घेरा बना लिया था जैसे मृत पशु के ऊपर गिद्ध मंडराते हैं। ताड़ से निकलने वाली ताड़ी
के रसपान के स्मरण मात्र से ही इस सभा में उपस्थित हर सज्जन के मुख में जिव्हा
लपलपाने लगी और लार बाढ़ का रूप ले कर होठों के बांध तोड़ती हुई बाहर टपकने लगी। बस
अब उन चार अधेड़ उम्र के सहनायकों की प्रतीक्षा थी जो एक नया समाचार गढ़ने वाले थे।
फिर जो हुआ वह लोकतांत्रिक
परिकल्पना से परे था। ना इसकी आशा थी, ना ही आशंका। ना पहले कभी हुआ, और ईश्वर ना करे भविष्य में कभी हो। इस सर्वोच्च संस्थान के वरिष्ठ
सम्माननीय अपने ही वरिष्ठतम सहकर्मी की कार्यप्रणाली से रुष्ठ थे। यहाँ तक तो ठीक, पर इस असहमति को सार्वजनिक करने के पीछे क्या उद्देश्य था, यह कोई भी टी वी चेनल गत एक सप्ताह से नही बूझ पा रहा है। अरे भाई वह
रोस्टर का मास्टर है, रिंग मास्टर थोड़े ही है। अगर आज नही
माना तो कल मान जाएगा, खा तो नही जाएगा। और यदि नही भी माना
तो क्या? अगला नंबर आपका है, जब आप
पदासीन हों तो यह परिपाटी बदल देना। यूं बखेड़ा खड़ा करने से क्या लाभ। लोकतन्त्र
में भी स्वतन्त्रता असीमित नही है, उसकी अपनी मर्यादायें और
सीमाएं हैं। आप चाहते हो की जनता निर्धारित करे कि संविधान प्रदत्त सर्वोच्च संस्थान के शीर्षपद
पर आसीन गणमान्य का भविष्य जनता तय करे। अरे जनता कचरे को सही डब्बे में डाल दे और
अपनी लेन में गाड़ी चला ले तो बहुत है। गूगल कर कर के भला कोई चिकित्सक बन सकता है? आप ही इस मर्ज का इलाज कर सकते हैं, हमसे उम्मीद ना
लगाएँ। इन प्रेस वार्ताओं से समाचार पत्र की बिक्री और टी आर पी ही बदल सकती है, समस्याएँ या हालात नही। छोटा मुंह बड़ी बात है- घर की बात है, घर में ही सुलझा लें, यूं अनर्गल तिल का ताड़ ना
बनाएँ।
॥इति॥
अशेष
१७.०१.१८
चित्र: भास्कर.कॉम
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